ग़म के हाथों मिरे दिल पर जो समाँ गुज़रा है
हादिसा ऐसा ज़माने में कहाँ गुज़रा है
ज़िंदगी का है ख़ुलासा वही इक लम्हा-ए-शौक़
जो तिरी याद में ऐ जान-ए-जहाँ गुज़रा है
हाल-ए-दिल ग़म से ये है जैसे किसी सहरा में
अभी इक क़ाफ़िला-ए-नौहा-गराँ गुज़रा है
बज़्म-ए-दोशीं को करो याद कि इस का हर रिंद
रौनक़-ए-बार-गह-ए-पीर-ए-मुग़ाँ गुज़रा है
पा-ब-गुल जो थे वो आज़ुर्दा नज़र आते हैं
शायद इस राह से वो सर्व-ए-रवाँ गुज़रा है
निगरानी-ए-दिल-ओ-दीदा हुई है दुश्वार
कोई जब से मिरी जानिब निगराँ गुज़रा है
हाल-ए-दिल सुन के वो आज़ुर्दा हैं शायद उन को
इस हिकायत पे शिकायत का गुमाँ गुज़रा है
वो गुल-अफ़्शानी-ए-गुफ़्तार का पैकर 'सालिक'
आज कूचे से तिरे अश्क-फ़िशाँ गुज़रा है
ग़ज़ल
ग़म के हाथों मिरे दिल पर जो समाँ गुज़रा है
अब्दुल मजीद सालिक