ग़म का इज़हार भी करने नहीं देती दुनिया
और मरता हूँ तो मरने नहीं देती दुनिया
सब ही मय-ख़ाना-ए-हस्ती से पिया करते हैं
मुझ को इक जाम भी भरने नहीं देती दुनिया
आस्ताँ पर तिरे हम सर को झुका तो लेते
सर से ये बोझ उतरने नहीं देती दुनिया
हम कभी दैर के तालिब हैं कभी काबा के
एक मरकज़ पे ठहरने नहीं देती दुनिया
बिजलियों से जो बचाता हूँ नशेमन अपना
मुझ को ऐसा भी तो करने नहीं देती दुनिया
मुंदमिल होने पे आएँ तो छिड़कती है नमक
ज़ख़्म दिल के मिरे भरने नहीं देती दुनिया
मेरी कोशिश है मोहब्बत से किनारा कर लूँ
लेकिन ऐसा भी तो करने नहीं देती दुनिया
देने वालों को है दुनिया से बग़ावत लाज़िम
देने वालों को उभरने नहीं देती दुनिया
जिस ने बुनियाद गुलिस्ताँ की कभी डाली थी
उस को गुलशन से गुज़रने नहीं देती दुनिया
घुट के मर जाऊँ ये ख़्वाहिश है ज़माने की 'कँवल'
आह भरता हूँ तो भरने नहीं देती दुनिया
ग़ज़ल
ग़म का इज़हार भी करने नहीं देती दुनिया
कँवल डिबाइवी