ग़म-ए-जानाँ के सिवा कुछ हमें प्यारा न हुआ
हम किसी के न हुए कोई हमारा न हुआ
क्या उसी का है वफ़ा नाम-ए-मोहब्बत है यही
मेहरबाँ हम पे कभी वो सितम-आरा न हुआ
लाख तूफ़ान-ए-हवादिस ने क़दम थाम लिए
मेरी ग़ैरत को पलटना भी गवारा न हुआ
दिल वही दिल है हक़ीक़त की नज़र में ऐ दिल
सर्द जिस दिल में मोहब्बत का शरारा न हुआ
ढूँढता आएगा कल अहल-ए-मोहब्बत को यही
ग़म नहीं आज ज़माना जो हमारा न हुआ
अहल-ए-दुनिया ने मसर्रत ही मसर्रत चाही
हम को इस ग़म के सिवा कुछ भी गवारा न हुआ
जान दी है दिल-ए-ख़ुद्दार ने किस मुश्किल से
आज बालीं पे वो ख़ुद-बीन-ओ-ख़ुद-आरा न हुआ
आँख सू-ए-हरम-ओ-दैर कभी उठ जाती
इश्क़ की राह में ये भी तो गवारा न हुआ
ख़ाक छानी चमन-ओ-दश्त की बरसों 'फ़ैज़ी'
आह तस्कीन-ए-नज़र कोई नज़ारा न हुआ
ग़ज़ल
ग़म-ए-जानाँ के सिवा कुछ हमें प्यारा न हुआ
फ़ैज़ी निज़ाम पुरी