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ग़म-ए-जानाँ के सिवा कुछ हमें प्यारा न हुआ | शाही शायरी
gham-e-jaanan ke siwa kuchh hamein pyara na hua

ग़ज़ल

ग़म-ए-जानाँ के सिवा कुछ हमें प्यारा न हुआ

फ़ैज़ी निज़ाम पुरी

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ग़म-ए-जानाँ के सिवा कुछ हमें प्यारा न हुआ
हम किसी के न हुए कोई हमारा न हुआ

क्या उसी का है वफ़ा नाम-ए-मोहब्बत है यही
मेहरबाँ हम पे कभी वो सितम-आरा न हुआ

लाख तूफ़ान-ए-हवादिस ने क़दम थाम लिए
मेरी ग़ैरत को पलटना भी गवारा न हुआ

दिल वही दिल है हक़ीक़त की नज़र में ऐ दिल
सर्द जिस दिल में मोहब्बत का शरारा न हुआ

ढूँढता आएगा कल अहल-ए-मोहब्बत को यही
ग़म नहीं आज ज़माना जो हमारा न हुआ

अहल-ए-दुनिया ने मसर्रत ही मसर्रत चाही
हम को इस ग़म के सिवा कुछ भी गवारा न हुआ

जान दी है दिल-ए-ख़ुद्दार ने किस मुश्किल से
आज बालीं पे वो ख़ुद-बीन-ओ-ख़ुद-आरा न हुआ

आँख सू-ए-हरम-ओ-दैर कभी उठ जाती
इश्क़ की राह में ये भी तो गवारा न हुआ

ख़ाक छानी चमन-ओ-दश्त की बरसों 'फ़ैज़ी'
आह तस्कीन-ए-नज़र कोई नज़ारा न हुआ