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ग़म-ए-जाँ तू है अगर राहत-ए-जाँ है तू है | शाही शायरी
gham-e-jaan tu hai agar rahat-e-jaan hai tu hai

ग़ज़ल

ग़म-ए-जाँ तू है अगर राहत-ए-जाँ है तू है

वलीउल्लाह मुहिब

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ग़म-ए-जाँ तू है अगर राहत-ए-जाँ है तू है
हम ने ये जान लिया जान-ए-जहाँ है तू है

वो ख़रीदार जो ख़्वाहाँ हो मता-ए-दिल का
किस को बतलाऊँ वो दिल-ख़्वाह कहाँ है तू है

सैद-ए-दिल एक भी जाँ-बर तिरे हाथों न हुआ
नावक-अंदाज़ जो बे-तीर-ओ-कमाँ है तू है

दिल-ए-बेनाम-ओ-निशाँ पर मिरे जूँ नक़्श-ए-नगीं
नाम का जिस के नुमूदार निशाँ है तू है

शम-ए-फ़ानूस तुझे कहिए कि हर मज्लिस में
है निहाँ पर्दे में और साफ़ अयाँ है तू है

क्या कहूँ ऐ दिल-ए-जाँ-काह मिरी छाती पर
उस की फ़ुर्क़त में जो इक कोह-ए-गिराँ है तू है

छोड़ के ज़ोफ़ में तन्हा तू न जावे ग़म-ए-दोस्त
अब मिरे जी में जो कुछ ताब-ओ-तवाँ है तू है

चमन-ए-दहर में नर्गिस की तरह दीदा-ए-ज़ार
जिस के दीदार की ख़ातिर निगराँ है तू है

किस को शीरीं कहूँ अब जिस की है ख़ून-ए-फ़रहाद
जू-ए-ख़ूँ हर मिज़ा मेरे से रवाँ है तू है

सिर्फ़ बुलबुल ही नहीं नारा-ज़नाँ गुलशन में
गुल भी जिस गुल के लिए जामा-दराँ है तू है

करे तासीर 'मुहिब' दिल में वहीं सामेअ' के
पुर-असर जिस की मोहब्बत का बयाँ है तू है