EN اردو
ग़म-ए-इंसाँ की सजाई हुई दुनिया हूँ मैं | शाही शायरी
gham-e-insan ki sajai hui duniya hun main

ग़ज़ल

ग़म-ए-इंसाँ की सजाई हुई दुनिया हूँ मैं

मतीन नियाज़ी

;

ग़म-ए-इंसाँ की सजाई हुई दुनिया हूँ मैं
अंजुमन मेरे तसव्वुर में है तन्हा हूँ मैं

तपिश ओ दर्द के असरार से वाक़िफ़ हूँ मगर
मुझ को ये ज़ोम नहीं है कि मसीहा हूँ मैं

जाने क्या शय मिरे सीने में भरी है ऐसी
शम-ए-सोज़ाँ की तरह जलता पिघलता हूँ मैं

न कशिश हूँ मैं ज़मीं की न हूँ पानी का उछाल
ज़र्रे उड़ता हुआ बहता हुआ दरिया हूँ मैं

रोज़ पैग़ाम-ए-मोहब्बत मुझे देती है हयात
राह-ए-दुश्वार से आसूदा गुज़रता हूँ मैं

चारासाज़ी ग़म-ए-इंसाँ की है बुनियाद-ए-अमल
ज़िंदगी है यही जिस के लिए जीता हूँ मैं

पैरवी-ए-हवस-ए-ख़ाम न होगी मुझ से
मक़्सद-ए-ज़ाबता-ए-इश्क़ समझता हूँ मैं

अस्र-ए-हाज़िर के नुमाइंदा हैं मेरे अशआर
ग़म-ए-इंसाँ को तग़ज़्ज़ुल में समोता हूँ मैं

जज़्बा-ए-ख़िदमत-ए-इंसाँ है 'मतीन' आब-ए-हयात
शुक्र-सद-शुक्र ऐ एहसास कि अच्छा हूँ मैं