ग़म-ए-हयात में कोई कमी नहीं आई
नज़र-फ़रेब थी तेरी जमाल-आराई
वो दास्ताँ जो तिरी दिलकशी ने छेड़ी थी
हज़ार बार मिरी सादगी ने दोहराई
फ़साने आम सही मेरी चश्म-ए-हैराँ के
तमाशा बनते रहे हैं यहाँ तमाशाई
तिरी वफ़ा तिरी मजबूरियाँ बजा लेकिन
ये सोज़िश-ए-ग़म-ए-हिज्राँ ये सर्द तन्हाई
किसी के हुस्न-ए-तमन्ना का पास है वर्ना
मुझे ख़याल-ए-जहाँ है न ख़ौफ़-ए-रुस्वाई
मैं सोचता हूँ ज़माने का हाल क्या होगा
अगर ये उलझी हुई ज़ुल्फ़ तू ने सुलझाई
कहीं ये अपनी मोहब्बत की इंतिहा तो नहीं
बहुत दिनों से तिरी याद भी नहीं आई
ग़ज़ल
ग़म-ए-हयात में कोई कमी नहीं आई
अहमद राही