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ग़म-ए-हयात की लज़्ज़त बदलती रहती है | शाही शायरी
gham-e-hayat ki lazzat badalti rahti hai

ग़ज़ल

ग़म-ए-हयात की लज़्ज़त बदलती रहती है

शकेब जलाली

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ग़म-ए-हयात की लज़्ज़त बदलती रहती है
ब-क़द्र-ए-फ़िक्र शिकायत बदलती रहती है

हरीम-ए-राज़ उमीद-ए-करम कि ज़ौक़-ए-नुमूद
ख़ुलूस-ए-दोस्त की क़ीमत बदलती रहती है

कभी ग़ुरूर कभी बे-रुख़ी कभी नफ़रत
शबीह-ए-जोश-ए-मोहब्बत बदलती रहती है

नहीं कि तेरा करम मुझ को नागवार नहीं
ये ग़म है वज्ह-ए-मसर्रत बदलती रहती है

अगर फ़रेब हसीं हो तो फिर फ़रेब नहीं
ख़ता मुआ'फ़ हक़ीक़त बदलती रहती है