ग़म-ए-हबीब ग़म-ए-दो-जहाँ नहीं होता
अगर ख़ुलूस-ए-वफ़ा बे-कराँ नहीं होता
दिलों की आग बढ़ाओ कि लोग कहते हैं
चराग़-ए-हुस्न से रौशन जहाँ नहीं होता
तिरी निगाह-ए-करम ही का ये असर तो नहीं
जहाँ में हम पे कोई मेहरबाँ नहीं होता
शुऊ'र-ए-मंज़िल-ए-मक़्सूद भी है शर्त-ए-सफ़र
हुजूम-ए-राह-रवाँ कारवाँ नहीं होता
ग़ज़ल
ग़म-ए-हबीब ग़म-ए-दो-जहाँ नहीं होता
अनवर मोअज़्ज़म