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ग़म-ए-हबीब ग़म-ए-दो-जहाँ नहीं होता | शाही शायरी
gham-e-habib gham-e-do-jahan nahin hota

ग़ज़ल

ग़म-ए-हबीब ग़म-ए-दो-जहाँ नहीं होता

अनवर मोअज़्ज़म

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ग़म-ए-हबीब ग़म-ए-दो-जहाँ नहीं होता
अगर ख़ुलूस-ए-वफ़ा बे-कराँ नहीं होता

दिलों की आग बढ़ाओ कि लोग कहते हैं
चराग़-ए-हुस्न से रौशन जहाँ नहीं होता

तिरी निगाह-ए-करम ही का ये असर तो नहीं
जहाँ में हम पे कोई मेहरबाँ नहीं होता

शुऊ'र-ए-मंज़िल-ए-मक़्सूद भी है शर्त-ए-सफ़र
हुजूम-ए-राह-रवाँ कारवाँ नहीं होता