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ग़म-ए-दिल रुख़ से अयाँ हो ये ज़रूरी तो नहीं | शाही शायरी
gham-e-dil ruKH se ayan ho ye zaruri to nahin

ग़ज़ल

ग़म-ए-दिल रुख़ से अयाँ हो ये ज़रूरी तो नहीं

साहिर होशियारपुरी

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ग़म-ए-दिल रुख़ से अयाँ हो ये ज़रूरी तो नहीं
इश्क़ रुस्वा-ए-जहाँ हो ये ज़रूरी तो नहीं

लब पे हर-वक़्त फ़ुग़ाँ हो ये ज़रूरी तो नहीं
हम-नवा दिल की ज़बाँ हो ये ज़रूरी तो नहीं

जान-ए-तन्हा पे गुज़र जाएँ हज़ारों सदमे
आँख से अश्क रवाँ हो ये ज़रूरी तो नहीं

मिल ही जाएगी कहीं ढूँढने वाले को बहार
हर गुलिस्ताँ में ख़िज़ाँ हो ये ज़रूरी तो नहीं

हम जिसे अपनी ज़बाँ से भी न कहने पाएँ
वो मोहब्बत का बयाँ हो ये ज़रूरी तो नहीं

उन की आँखों में छलक आए हैं आँसू जिस से
वो मिरे दिल का धुआँ हो ये ज़रूरी तो नहीं

ज़ब्त भी होता है अंदाज़-ए-जुनूँ में शामिल
आरज़ू शोला-ब-जाँ हो ये ज़रूरी तो नहीं

आरज़ूओं की भी इक भीड़ है शहर-ए-दिल में
हसरतों का ही निशाँ हो ये ज़रूरी तो नहीं

सोच कर वादी-ए-उल्फ़त में क़दम रख 'साहिर'
सिर्फ़ दिल ही का ज़ियाँ हो ये ज़रूरी तो नहीं