ग़म-ए-दिल ही ग़म-ए-दौराँ ग़म-ए-जानाना बनता है
यही ग़म शेर बनता है यही अफ़्साना बनता है
इसी से गर्मी-ए-दार-ओ-रसन है इंक़िलाबों में
बहारों में यही ज़ुल्फ़-ओ-क़द-ए-जानाना बनता है
सरों के ख़ुम सुराही गर्दनों की जाम ज़ख़्मों के
मुहय्या जब ये हो लेते हैं तब मय-ख़ाना बनता है
बिगड़ता क्या है परवाने का जल कर ख़ाक होने में
कि फिर परवाने ही की ख़ाक से परवाना बनता है
निगाह-ए-कम से मेरी चाक-दामानी को मत देखो
हज़ारों होशयारों में कोई दीवाना बनता है
ख़रीदा जा नहीं सकता है साक़ी ज़र्फ़ रिंदों का
बहुत शीशे पिघलते हैं तो इक पैमाना बनता है
मिरे ही दोनों हाथ आते हैं काम उन के सँवरने में
दिखाता है कोई आईना कोई शाना बनता है
बड़ा सरमाया है सब कुछ लुटा देना मोहब्बत में
फ़क़ीराना लिबास आते हैं दिल शाहाना बनता है
ग़ज़ल
ग़म-ए-दिल ही ग़म-ए-दौराँ ग़म-ए-जानाना बनता है
कलीम आजिज़