EN اردو
ग़म-ए-दौराँ भी नहीं है ग़म-ए-जानाँ भी नहीं | शाही शायरी
gham-e-dauran bhi nahin hai gham-e-jaanan bhi nahin

ग़ज़ल

ग़म-ए-दौराँ भी नहीं है ग़म-ए-जानाँ भी नहीं

मंज़ूर आरिफ़

;

ग़म-ए-दौराँ भी नहीं है ग़म-ए-जानाँ भी नहीं
सख़्त मुश्किल में है अब दिल कि ग़म-ए-जाँ भी नहीं

मुझ से नाराज़ हैं सब जान-ओ-जहान-ओ-जानाँ
मैं कि दिल से भी जुदा शय हूँ परेशाँ भी नहीं

दिल ने कुछ और कहाँ अक़्ल ने कुछ और कही
सुन के दोनों की न मानी कि मैं नादाँ भी नहीं

हद-ए-इम्कान-ए-तसव्वुर में सही मेरा सुराग़
लेकिन ऐ दिल मुझे अब ढूँढना आसाँ भी नहीं

एक वो दिन कि तिरी दीद पे क़ुर्बां थी निगाह
एक ये दिन कि तिरे वस्ल का अरमाँ भी नहीं

जाने किस ख़ित्ता-ए-अफ़्लाक से उतरा 'आरिफ़'
जो इक इंसान की सूरत भी है इंसाँ भी नहीं