गली गली आबाद थी जिन से कहाँ गए वो लोग
दिल्ली अब के ऐसी उजड़ी घर घर फैला सोग
सारा सारा दिन गलियों में फिरते हैं बेकार
रातों उठ उठ कर रोते हैं इस नगरी के लोग
सहमे सहमे से बैठे हैं रागी और फ़नकार
भोर भए अब इन गलियों में कौन सुनाए जोग
जब तक हम मसरूफ़ रहे ये दुनिया थी सुनसान
दिन ढलते ही ध्यान में आए कैसे कैसे लोग
'नासिर' हम को रात मिला था तन्हा और उदास
वही पुरानी बातें उस की वही पुराना रोग
ग़ज़ल
गली गली आबाद थी जिन से कहाँ गए वो लोग
नासिर काज़मी