EN اردو
गले लगाएँ बलाएँ लें तुम को प्यार करें | शाही शायरी
gale lagaen balaen len tumko pyar karen

ग़ज़ल

गले लगाएँ बलाएँ लें तुम को प्यार करें

रिन्द लखनवी

;

गले लगाएँ बलाएँ लें तुम को प्यार करें
जो बात मानो तो मिन्नत हज़ार बार करें

ये हाथ कैसे हैं बे-कार कुछ तो कार करें
बहार आई गरेबान तार तार करें

कहाँ से लाएँ अब उस को जो हम-कनार करें
तसल्ली क्या तिरी ओ जान-ए-बे-क़रार करें

वो रब्त तुम से बढ़ाएँ वो तुम को यार करें
हज़ार तरह के जो जब्र इख़्तियार करें

गिराए सैल-ए-अनासिर की चार दीवारी
ख़राब ख़ाना-ए-तन चश्म-ए-अश्क-बार करें

तुम्हारे दर से न मायूस जाएँ हाजत-मंद
क़ुबूल होवे जो तौबा गुनाहगार करें

कफ़न भी हो गया मैला धरे धरे ऐ मौत
तमाम उम्र हुई कब तक इंतिज़ार करें

ब-रंग-ए-ग़ुंचा ज़बाँ है दहाँ में ज़ेर-ए-ज़बाँ
तुम्हारे क़ौल का क्या ख़ाक ए'तिबार करें

गदा तिरे दर-ए-दौलत के हैं ये मुस्तग़नी
जो सल्तनत भी मिले तो न इख़्तियार करें

ग़ुरूर-ए-हुस्न से हरगिज़ सुनेगा एक न गुल
चमन में नाले अगर बुलबुलें हज़ार करें

सुनाए रखता हूँ सब को मिरी वसिय्यत है
कि ता इसी पे अमल मेरे ग़म-गुसार करें

चराग़-ए-ज़ीस्त जब उस नंग-ए-दूदमाँ का हो गुल
अज़ीज़ शम्अ न रौशन सर-ए-मज़ार करें

तिरे सिवा है करीम और रहीम किस की ज़ात
नजात किस से तलब हम गुनाहगार करें

बजाए-सुर्मा लगाएँ ग़ुबार-ए-कूचा-ए-यार
यही इलाज तिरा चश्म-ए-अश्क-बार करें

सितम-शिआर जफ़ा-पेशा बे-मुरव्वत है
सराहिये जिगर उन के जो तुझ को प्यार करें

बढ़ा के लिक्खें न शाएर हदीस-ए-ज़ुल्फ़-ए-रसा
हुआ है तूल मुनासिब है इख़्तिसार करें

दर-ए-करीम से आती है मुत्तसिल ये सदा
वो क्यूँ न पाए जिसे हम उमीद-वार करें

ये बुत उठाएँ जो क़ुरआँ भी काबे में ऐ 'रिन्द'
ख़ुदा से हम तो हों मुंकिर जो ए'तिबार करें