गल को शर्मिंदा कर ऐ शोख़ गुलिस्तान में आ
लब सीं ग़ुंचे का जिगर ख़ूँ करो मुस्क्यान में आ
वही इक जल्वा-नुमा जग में है दूजा कोई नहीं
देख वाजिब कूँ सदा मजमा-ए-इम्कान में आ
ज़िंदगी मुझ दिल-ए-मुर्दा की तौहीं है मत जा
दिल से गर ख़ुश नहीं ऐ शोख़ मिरी जान में आ
गुल दिल-ए-ग़ुंचा नमन तंग हो रंग-ओ-बू सीं
जब करे याद तिरे लब के तईं ध्यान में आ
गर तू मुश्ताक़ है दिलबर सफ़र-ए-दरिया का
आ के कर मौज मिरे दीदा-ए-गिरयान में आ
मत मिला कर तू रक़ीबाँ सीं सभी पाजी हैं
देख कर क़द्र आपस का ऐ सनम शान में आ
यूँ मिरा दिल तिरे कूचे का बला-गर्दां है
ज्यूँ कबूतर उड़े है छतरी के गर्दान में आ
गर करो क़त्ल मिरे दिल कूँ तग़ाफ़ुल सीं जान
फिर के दावा न करूँ हश्र के मैदान में आ
दिल-ए-'यकरू' है तिरा पाए बंधिया काकुल का
याद रख उस कूँ सदा मत कभू निस्यान में आ
ग़ज़ल
गल को शर्मिंदा कर ऐ शोख़ गुलिस्तान में आ
अब्दुल वहाब यकरू