EN اردو
गल को शर्मिंदा कर ऐ शोख़ गुलिस्तान में आ | शाही शायरी
gal ko sharminda kar ai shoKH gulistan mein aa

ग़ज़ल

गल को शर्मिंदा कर ऐ शोख़ गुलिस्तान में आ

अब्दुल वहाब यकरू

;

गल को शर्मिंदा कर ऐ शोख़ गुलिस्तान में आ
लब सीं ग़ुंचे का जिगर ख़ूँ करो मुस्क्यान में आ

वही इक जल्वा-नुमा जग में है दूजा कोई नहीं
देख वाजिब कूँ सदा मजमा-ए-इम्कान में आ

ज़िंदगी मुझ दिल-ए-मुर्दा की तौहीं है मत जा
दिल से गर ख़ुश नहीं ऐ शोख़ मिरी जान में आ

गुल दिल-ए-ग़ुंचा नमन तंग हो रंग-ओ-बू सीं
जब करे याद तिरे लब के तईं ध्यान में आ

गर तू मुश्ताक़ है दिलबर सफ़र-ए-दरिया का
आ के कर मौज मिरे दीदा-ए-गिरयान में आ

मत मिला कर तू रक़ीबाँ सीं सभी पाजी हैं
देख कर क़द्र आपस का ऐ सनम शान में आ

यूँ मिरा दिल तिरे कूचे का बला-गर्दां है
ज्यूँ कबूतर उड़े है छतरी के गर्दान में आ

गर करो क़त्ल मिरे दिल कूँ तग़ाफ़ुल सीं जान
फिर के दावा न करूँ हश्र के मैदान में आ

दिल-ए-'यकरू' है तिरा पाए बंधिया काकुल का
याद रख उस कूँ सदा मत कभू निस्यान में आ