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ग़ैरों में हिना वो मल रहा है | शाही शायरी
ghairon mein hina wo mal raha hai

ग़ज़ल

ग़ैरों में हिना वो मल रहा है

शाद लखनवी

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ग़ैरों में हिना वो मल रहा है
नैरंग-ए-जहाँ बदल रहा है

खटका है ये नश्तर-ए-मिज़्गाँ का
रग रग से जो दम निकल रहा है

वस्फ़-ए-लब-ए-सुर्ख़ लिख रहा हूँ
याक़ूत क़लम उगल रहा है

आबादी-ए-दिल है दाग़-ए-सोजाँ
इस घर में चराग़ जल रहा है

है दिल की तड़प से चश्म-ए-पुर-नम
पारे का कुआँ उबल रहा है

दिल ग़म से न किस तरह हो ठंडा
पंखा दम-ए-सर्द झल रहा है

बेताब है दिल ये ग़म के हाथों
गेंदे की तरह उछल रहा है

शबनम से जोश-ए-मय-कशी है
हर साग़र-ए-गुल खंगल रहा है

दिल आतिश-ए-ग़म से ताओ खा कर
राँगे की तरह पिघल रहा है

है चश्म-ए-सियह में कूदक-ए-अश्क
भँवरे में ये तिफ़्ल पल रहा है

मनका है ढला लवें फिरी हैं
आ जल्द कि दम निकल रहा है

बे-बर्ग-ओ-समर हैं इक हमीं 'शाद'
हर एक निहाल फल रहा है