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ग़ैरों का तो कहना क्या महरम से नहीं कहता | शाही शायरी
ghairon ka to kahna kya mahram se nahin kahta

ग़ज़ल

ग़ैरों का तो कहना क्या महरम से नहीं कहता

मीम हसन लतीफ़ी

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ग़ैरों का तो कहना क्या महरम से नहीं कहता
मैं आलम-ए-ग़म अपना आलम से नहीं कहता

पढ़ लेती हैं कैफ़िय्यत कुछ तड़पी हुई नज़रें
दुख अपने मैं हर चश्म-ए-पुर-नम से नहीं कहता

रहगीर हूँ मैं ऐसा हर ग़म से गुज़रता है
दावत पे जो रिंदान-ए-ख़ुर्रम से नहीं कहता

मौसम हमा-गर्दिश है पसमांदा-ए-गर्दिश है
लब-तिश्ना कोई ये शय क्यूँ जम से नहीं कहता

कस्ब-ए-मुतहर्रिक से पा-बस्ता नसब तुग़रे
ये क्या है कोई अहल-ए-ख़ातम से नहीं कहता

आ दाग़-ए-मोहब्बत के साँचे में तुझे ढालूँ
ख़ातम से मैं कहता हूँ दिरहम से नहीं कहता

कुछ बात थी कहने की कुछ भूल गया अब मैं
फ़ितरत से नहीं कहता आदम से नहीं कहता

कहते तो नहीं बावर ना कहिए तो काफ़िर-तर
कहने की क़सम मुझ को मैं दम से नहीं कहता

कहलाने में ख़ुद उन का कुछ तकमिला नारस है
उल्टे उन्हीं शिकवे हैं क्यूँ हम से नहीं कहता

हाँ मेरी ये उलझन तो हर दिल में खटकती है
कुछ मुड़ के कोई ज़ुल्फ़-ए-बरहम से नहीं कहता

क्यूँ हो न जुनूँ कम-गो जब होता है ये ज़ीरक
दोहराई हुई बातें महरम से नहीं कहता

कहने से हुआ गहरा कुछ और ग़म-ए-पिन्हाँ
मैं साए से कहता हूँ हमदम से नहीं कहता

जिस लम्हे से देखा है इक शे'र सरापा को
दानिस्ता कोई मिस्रा इस दम से नहीं कहता

देते हैं वो महफ़िल में यूँ दाद 'लतीफी' को
अशआ'र ये क्या अक्सर मुबहम से नहीं कहता