ग़ैरत-ए-महर रश्क-ए-माह हो तुम
ख़ूबसूरत हो बादशाह हो तुम
जिस ने देखा तुम्हें वो मर ही गया
हुस्न से तेग़-ए-बे-पनाह हो तुम
क्यूँ-कर आँखें न हम को दिखलाओ
कैसे ख़ुश-चश्म ख़ुश-निगाह हो तुम
हुस्न में आप के है शान-ए-ख़ुदा
इश्क़-बाज़ों के सज्दा-गाह हो तुम
हर लिबास आप को है ज़ेबिंदा
जामा-ज़ेबों के बादशाह हो तुम
फ़ौक़ है सारे ख़ुश-जमालों पर
वो सितारे जो हैं तो माह हो तुम
हम से पर्दा वही हिजाब का है
कूचा-गर्दों से रू-बराह हो तुम
क्यूँ मोहब्बत बढ़ाई थी तुम से
हम गुनाहगार बे-गुनाह हो तुम
जो कि हक़्क़-ए-वफ़ा बजा लाए
शाहिद अल्लाह है गवाह हो तुम
है तुम्हारा ख़याल पेश-ए-नज़र
जिस तरफ़ जाएँ सद्द-ए-राह हो तुम
दोनों बंदे उसी के हैं 'आतिश'
ख़्वाह हम उस में होवें ख़्वाह हो तुम
ग़ज़ल
ग़ैरत-ए-महर रश्क-ए-माह हो तुम
हैदर अली आतिश