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ग़ैरत-ए-इश्क़ सलामत थी अना ज़िंदा थी | शाही शायरी
ghairat-e-ishq salamat thi ana zinda thi

ग़ज़ल

ग़ैरत-ए-इश्क़ सलामत थी अना ज़िंदा थी

अहमद फ़राज़

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ग़ैरत-ए-इश्क़ सलामत थी अना ज़िंदा थी
वो भी दिन थे कि रह-ओ-रस्म-ए-वफ़ा ज़िंदा थी

क़ैस को दोश न दो रखियो न फ़रहाद को नाम
इन्ही लोगों से मोहब्बत की अदा ज़िंदा थी

शहर-ए-बीमार के हर कूचा ओ बाम ओ दर पर
हम भी मरते थे कि जब ख़ल्क़-ए-ख़ुदा ज़िंदा थी

बुझ गईं शमएँ तो दम तोड़ गए झोंके भी
जिस तरह ज़हर-ए-रक़ाबत से हवा ज़िंदा थी

याद-ए-अय्याम कि सहरा-ए-मोहब्बत में 'फ़राज़'
जरस-ए-क़ाफ़िला-ए-दिल की सदा ज़िंदा थी