ग़ैरत-ए-इश्क़ सलामत थी अना ज़िंदा थी
वो भी दिन थे कि रह-ओ-रस्म-ए-वफ़ा ज़िंदा थी
क़ैस को दोश न दो रखियो न फ़रहाद को नाम
इन्ही लोगों से मोहब्बत की अदा ज़िंदा थी
शहर-ए-बीमार के हर कूचा ओ बाम ओ दर पर
हम भी मरते थे कि जब ख़ल्क़-ए-ख़ुदा ज़िंदा थी
बुझ गईं शमएँ तो दम तोड़ गए झोंके भी
जिस तरह ज़हर-ए-रक़ाबत से हवा ज़िंदा थी
याद-ए-अय्याम कि सहरा-ए-मोहब्बत में 'फ़राज़'
जरस-ए-क़ाफ़िला-ए-दिल की सदा ज़िंदा थी
ग़ज़ल
ग़ैरत-ए-इश्क़ सलामत थी अना ज़िंदा थी
अहमद फ़राज़