ग़ैरत-ए-इश्क़ का ये एक सहारा न गया
लाख मजबूर हुए उन को पुकारा न गया
क्या लहू रोए तो आया है बहारों का सलाम
सिर्फ़ ख़्वाबों से हक़ाएक़ को सँवारा न गया
मा'रका इश्क़ का सर दे के भी सर हो न सका
कौन राही था जो इस राह में मारा न गया
वो भी वक़्त आता है साक़ी भी बदल जाते हैं
मय-कदे पर कभी मस्तों का इजारा न गया
शौक़ की बात कब अल्फ़ाज़ में ढल सकती थी
उस परी को कभी शीशे में उतारा न गया
कभी टकरा दिए शीशे कभी छलका दिए जाम
राएगाँ एक भी साक़ी का इशारा न गया
आइने जितने भी देखे वो मुकद्दर थे 'सुरूर'
जौहर-ए-सिद्क़-ओ-सफ़ा फिर भी हमारा न गया
ग़ज़ल
ग़ैरत-ए-इश्क़ का ये एक सहारा न गया
आल-ए-अहमद सूरूर