EN اردو
ग़ैर शायान-ए-रस्म-ओ-राह नहीं | शाही शायरी
ghair shayan-e-rasm-o-rah nahin

ग़ज़ल

ग़ैर शायान-ए-रस्म-ओ-राह नहीं

ग़ुलाम मौला क़लक़

;

ग़ैर शायान-ए-रस्म-ओ-राह नहीं
कब वो आशिक़ है जो तबाह नहीं

ऐ फ़लक दौर-ए-हुस्न में उस के
तुझ को कुछ फ़िक्र-ए-मेहर-ओ-माह नहीं

रब्त-ए-दुश्मन से भी वो बद-बर है
अब किसी तरह से निबाह नहीं

कम निगाही को उन की देखते हैं
उन पे भी अब हमें निगाह नहीं

पर्दा कब तक रहेगा ऐ ज़ालिम
अख़्तर-ए-मुद्दई सियाह नहीं

ज़ुल्म की क़द्र के लिए है रहम
दाद कुछ बहर-ए-दाद-ख़्वाह नहीं

हैफ़ क़ज़्ज़ाक़ी-ए-ज़माना हैफ़
रस्म-ओ-रह बहर-ए-रस्म-ओ-राह नहीं

है गदा शाह बल्कि शाहंशाह
सतवत-ए-क़हर-ए-बादशाह नहीं

उल्फ़त और तुम से हाए हाए न हो
लब-ए-दुश्मन पे आह आह नहीं

पस्ती-ए-तालेअ' बहर-ए-ख़ूबी-ए-फ़न
क्या वो यूसुफ़ जो ग़र्क़-ए-चाह नहीं

अर्सा-ए-नीस्ती-ओ-हस्ती से
बच के चलने की कोई राह नहीं

ऐ 'क़लक़' क्या हुआ बुढ़ापे में
इश्क़ कुछ सैर-ए-सुबह-गाह नहीं