ग़ैर शायान-ए-रस्म-ओ-राह नहीं
कब वो आशिक़ है जो तबाह नहीं
ऐ फ़लक दौर-ए-हुस्न में उस के
तुझ को कुछ फ़िक्र-ए-मेहर-ओ-माह नहीं
रब्त-ए-दुश्मन से भी वो बद-बर है
अब किसी तरह से निबाह नहीं
कम निगाही को उन की देखते हैं
उन पे भी अब हमें निगाह नहीं
पर्दा कब तक रहेगा ऐ ज़ालिम
अख़्तर-ए-मुद्दई सियाह नहीं
ज़ुल्म की क़द्र के लिए है रहम
दाद कुछ बहर-ए-दाद-ख़्वाह नहीं
हैफ़ क़ज़्ज़ाक़ी-ए-ज़माना हैफ़
रस्म-ओ-रह बहर-ए-रस्म-ओ-राह नहीं
है गदा शाह बल्कि शाहंशाह
सतवत-ए-क़हर-ए-बादशाह नहीं
उल्फ़त और तुम से हाए हाए न हो
लब-ए-दुश्मन पे आह आह नहीं
पस्ती-ए-तालेअ' बहर-ए-ख़ूबी-ए-फ़न
क्या वो यूसुफ़ जो ग़र्क़-ए-चाह नहीं
अर्सा-ए-नीस्ती-ओ-हस्ती से
बच के चलने की कोई राह नहीं
ऐ 'क़लक़' क्या हुआ बुढ़ापे में
इश्क़ कुछ सैर-ए-सुबह-गाह नहीं
ग़ज़ल
ग़ैर शायान-ए-रस्म-ओ-राह नहीं
ग़ुलाम मौला क़लक़