EN اردو
ग़ैर के घर हैं वो मेहमान बड़ी मुश्किल है | शाही शायरी
ghair ke ghar hain wo mehman baDi mushkil hai

ग़ज़ल

ग़ैर के घर हैं वो मेहमान बड़ी मुश्किल है

नसीम भरतपूरी

;

ग़ैर के घर हैं वो मेहमान बड़ी मुश्किल है
जान जाने के हैं सामान बड़ी मुश्किल है

कहते हैं आप हैं जिस बात के तालिब हम से
है वही ग़ैर को अरमान बड़ी मुश्किल है

और फिर किस से कहूँ हाल-ए-परेशानी-ए-दिल
तुम तो होते हो परेशान बड़ी मुश्किल है

बे-मिले काम भी चलता नहीं मिलना भी ज़रूर
ग़ैर से जान न पहचान बड़ी मुश्किल है

उस ने ली जान हज़ारों की ये दम दे दे कर
हम पे मरना नहीं आसान बड़ी मुश्किल है

वो उठा लेते हैं ये रख रख के छुरी गर्दन पर
काम होता नहीं आसान बड़ी मुश्किल है

राज़-ए-दिल उस बुत-ए-बद-ख़ू से कहूँ या न कहूँ
बात नाज़ुक है वो नादान बड़ी मुश्किल है

रोज़ कहते हो कि तू किस के लिए है बेताब
जान कर बनते हो अंजान बड़ी मुश्किल है

दोस्ती सहल नहीं उस बुत-ए-बद-ख़ू से 'नसीम'
ज़िद न कर देख मिरी जान बड़ी मुश्किल है