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ग़ैर-आबाद इलाक़े की फ़ज़ा कैसी है | शाही शायरी
ghair-abaad ilaqe ki faza kaisi hai

ग़ज़ल

ग़ैर-आबाद इलाक़े की फ़ज़ा कैसी है

अब्दुर्रहीम नश्तर

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ग़ैर-आबाद इलाक़े की फ़ज़ा कैसी है
दिल से उठती है जो रह रह के सदा कैसी है

मेरे पैरों से लिपटती ही रही मौज-ए-रवाँ
रेत से कर न सकी मुझ को जुदा कैसी है

टूट कर आई है लहराई है चारों जानिब
ये बरसती ही नहीं काली घटा कैसी है

पत्तियाँ धूप में कुम्हला गईं फीके हुए रंग
छाँव उतरी ही नहीं आब-ओ-हवा कैसी है

बासी फूलों को न झुलसाए तो सूरज कैसा
ताज़ा कलियाँ न खिलाए तो सबा कैसी है

क्यूँ नहीं गिरते सरों पे ये हवा के नेज़े
ग़र्क़ करती ही नहीं मौज-ए-फ़ना कैसी है

ज़र्द अल्फ़ाज़ का ज़हरीला भयानक आसेब
मेरे घर छोड़ गई मेरी सदा कैसी है

शहर-ए-अफ़्सूँ मुझे आवाज़ दे पत्थर कर दे
मैं इसे देख तो लूँ मेरी ख़ता कैसी है