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गई जो तिफ़्ली तो फिर आलम-ए-शबाब आया | शाही शायरी
gai jo tifli to phir aalam-e-shabab aaya

ग़ज़ल

गई जो तिफ़्ली तो फिर आलम-ए-शबाब आया

मर्दान अली खां राना

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गई जो तिफ़्ली तो फिर आलम-ए-शबाब आया
गया शबाब तो अब मौसम-ए-ख़िज़ाब आया

मैं शौक़-ए-वस्ल में क्या रेल पर शिताब आया
कि सुब्ह हिन्द में था शाम पंज-आब आया

कटा था रोज़-ए-मुसीबत ख़ुदा ख़ुदा कर के
ये रात आई कि सर पे मिरे अज़ाब आया

कहाँ है दिल को अबस ढूँढते हो पहलू में
तुम्हारे कूचे में मुद्दत से उस को दाब आया

किसी की तेग़-ए-तग़ाफ़ुल का मैं वो कुश्ता हूँ
न जागा नेज़े पे सौ बार आफ़्ताब आया

नज़र पड़ी न मिरी रोब-ए-हुस्न से रुख़ पर
अगरचे सामने मेरे वो बे-नक़ाब आया

हमेशा सूरत-ए-अंजुम खुली रहीं आँखें
फ़िराक़-ए-यार में किस रोज़ मुझ को ख़्वाब आया

हुआ यक़ीं कि ज़मीं पर है आज चाँद-गहन
वो माह चेहरे पे जब डाल कर नक़ाब आया

हुए जो दीदा-ए-गिर्या से अपने अश्क रवाँ
गुमाँ हुआ कि बरसता हुआ सहाब आया

बना तसव्वुर-ए-लैला ब-सूरत-ए-तस्वीर
कभी जो क़ैस की आँखों में शब को ख़्वाब आया

वो ज़ूद-रंज है उस को न छेड़ना 'रा'ना'
मलोगे हाथ अगर बर-सर-ए-इताब आया