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गई है शाम अभी ज़ख़्म ज़ख़्म कर के मुझे | शाही शायरी
gai hai sham abhi zaKHm zaKHm kar ke mujhe

ग़ज़ल

गई है शाम अभी ज़ख़्म ज़ख़्म कर के मुझे

वक़ार मानवी

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गई है शाम अभी ज़ख़्म ज़ख़्म कर के मुझे
अब और ख़्वाब नहीं देखने सहर के मुझे

हूँ मुतमइन कि हूँ आसूदा-ए-ग़म-ए-जानाँ
मजाल क्या कि ख़ुशी देखे आँख भर के मुझे

कहाँ मिलेगी भला इस सितमगरी की मिसाल
तरस भी खाता है मुझ पर तबाह कर के मुझे

मैं रह न जाऊँ कहीं तेरा आईना बन कर
ये देखना नहीं अच्छा सँवर सँवर के मुझे

इन आँसुओं से भला मेरा क्या भला होगा
वो मेरे बाद जो रोया भी याद कर के मुझे

खुला भी अब दर-ए-ज़िंदाँ तो जाऊँगा मैं कहाँ
कि रास्ते ही नहीं याद अपने घर के मुझे

हुनर-वरी फ़क़त एज़ाज़-बख़्श कब है 'वक़ार'
चुकाने पड़ते हैं कुछ क़र्ज़ भी हुनर के मुझे