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ग़फ़लत में हुई औक़ात बसर ऐ उम्र-ए-गुरेज़ाँ कुछ न किया | शाही शायरी
ghaflat mein hui auqat basar ai umr-e-gurezan kuchh na kiya

ग़ज़ल

ग़फ़लत में हुई औक़ात बसर ऐ उम्र-ए-गुरेज़ाँ कुछ न किया

शाद अज़ीमाबादी

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ग़फ़लत में हुई औक़ात बसर ऐ उम्र-ए-गुरेज़ाँ कुछ न किया
सब चलने के थे सामान बहम चलने ही का सामाँ कुछ न किया

वाइ'ज़ ने भरे ख़म चूर किए तर कर दी ज़मीं ऐ पीर-ए-मुग़ाँ
ज़ालिम ने ज़रा भी तेरा लिहाज़ ऐ रहबर-ए-ईमाँ कुछ न किया

आ'माल की ज़िश्ती का बदला मैं कह नहीं सकता क्या मिलता
भेजा भी अगर दोज़ख़ में तुझे ऐ साहब-ए-ईमाँ कुछ न किया

मय पीने का दिल में जोश न था ज़ाहिर की तलब थी होश में आ
साक़ी ने मिलाया ज़हर अगर ऐ मुंकिर-ए-एहसाँ कुछ न किया

माना कि बड़ी सफ़्फ़ाक है तू बिल-फ़र्ज़ बड़ी जल्लाद है तू
मैं जीता रहा ता-सुब्ह अगर तो ऐ शब-ए-हिज्राँ कुछ न किया

तकलीफ़ किसी को गर पहूँची तू इस में तकल्लुफ़ क्या निकला
हैरान जो रखा क़ातिल को तो ऐ शब-ए-हिज्राँ कुछ न किया

उल्टा न इराक़-ओ-शाम-ओ-हलब दुनिया न हुई वीरान तो क्या
जल-थल न लहू से तो ने भरा तो ख़ून-ए-मुसलमाँ कुछ न किया

सुनता हूँ अदू को ख़ाक किया मिट्टी में मिलाया घर उस का
फूँका न जला कर मुझ को अगर तू ऐ शब-ए-हिज्राँ कुछ न किया

क्या जी के करूँगा मैं तन्हा याँ ताब कहाँ बाक़ी दिल को
बे-मौत के अब मारा न मुझे तो दाग़-ए-अज़ीज़ाँ कुछ न किया

जुम्बिश से तिरी मक़्तल होता इक आन में दश्त-ए-कर्ब-ओ-बला
उश्शाक़ की बेबाकी का एवज़ ऐ abruu-e-barraa.n कुछ न किया

ऐ नंग-ए-जहाँ ऐ 'शाद' बता कुछ शर्म भी तुझ को है कि नहीं
ऐ जेहल-ए-मुरक्कब ऐ हैवाँ ऐ बे-ख़बर इंसाँ कुछ न किया