गए हैं देस को हम अपने छोड़ कर ही नहीं
मुहाजरत के लिए शर्त अब सफ़र भी नहीं
इसी जहान में रहते हैं ख़ूब-रू ऐसे
यक़ीन मुझ को हुआ उस को देख कर भी नहीं
मिरे वजूद में घुल-मिल के कर गया तन्हा
वो एक शख़्स जो आया कभी नज़र भी नहीं
वो इक किताब गई थी दिलों से ताक़ों पर
अब ऐसी दूर हुई है कि ताक़ पर भी नहीं
ग़म और ख़ुशी नहीं मौक़ूफ़ रोने हँसने पर
और इन हवालों से इज़हार मो'तबर भी नहीं
ग़ज़ल
गए हैं देस को हम अपने छोड़ कर ही नहीं
मोहम्मद अाज़म