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गए हैं देस को हम अपने छोड़ कर ही नहीं | शाही शायरी
gae hain des ko hum apne chhoD kar hi nahin

ग़ज़ल

गए हैं देस को हम अपने छोड़ कर ही नहीं

मोहम्मद अाज़म

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गए हैं देस को हम अपने छोड़ कर ही नहीं
मुहाजरत के लिए शर्त अब सफ़र भी नहीं

इसी जहान में रहते हैं ख़ूब-रू ऐसे
यक़ीन मुझ को हुआ उस को देख कर भी नहीं

मिरे वजूद में घुल-मिल के कर गया तन्हा
वो एक शख़्स जो आया कभी नज़र भी नहीं

वो इक किताब गई थी दिलों से ताक़ों पर
अब ऐसी दूर हुई है कि ताक़ पर भी नहीं

ग़म और ख़ुशी नहीं मौक़ूफ़ रोने हँसने पर
और इन हवालों से इज़हार मो'तबर भी नहीं