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फ़ुर्सत एक दम की है जूँ हबाब पानी याँ | शाही शायरी
fursat ek dam ki hai jun habab pani yan

ग़ज़ल

फ़ुर्सत एक दम की है जूँ हबाब पानी याँ

शाह नसीर

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फ़ुर्सत एक दम की है जूँ हबाब पानी याँ
ख़ाक सेर हो कीजे सैर-ए-ज़िंदगानी याँ

अब तो मुँह दिखा अपना काश के तू ऐ पीरी
मिल गई तिरी ख़ातिर ख़ाक में जवानी याँ

क्या ये पैरहन तन का जूँ हबाब चमके था
बाँधी है हवा मेरी तू ने ना-तवानी याँ

वक़्त-ए-गिर्या मौज़ूँ हो क्यूँ न आह का मिस्रा
रफ़्ता रफ़्ता अश्क अपना बन गया फ़ुग़ानी याँ

जान-ए-मन मुझे हर दम तेरा पास-ए-ख़ातिर है
इस लिए मैं करता हूँ दम की पासबानी याँ

उस के तीर-ए-मिज़्गाँ से हो गया जो दिल छलनी
बेशा-ए-नियस्ताँ की हम ने ख़ाक छानी याँ

घेर तू ने जामे का बे-तरह बढ़ाया है
अब ज़मीन नापेगा दौर-ए-आसमानी याँ

आगे उस की क़ामत के एक दिन जो अकड़ा था
ख़ूब सा बना सीधा सर्व-ए-बोस्तानी याँ

यार की गली मैं तू जा के बैठ मत रहना
हाल पर मिरे रखना चश्म-ए-मेहरबानी याँ

क़ासिद-ए-सरिश्क अपनी तुझ से है ग़रज़ इतनी
खाए गर वहाँ खाना पीजो आ के पानी याँ

ख़ार से ख़लिश रखना ऐ 'नसीर' बेजा है
है ये आबला-पाई वज्ह-ए-सर-गिरानी याँ