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फ़ुर्सत-ए-आगही भी दी लज़्ज़त-ए-बे-ख़ुदी भी दी | शाही शायरी
fursat-e-aghi bhi di lazzat-e-be-KHudi bhi di

ग़ज़ल

फ़ुर्सत-ए-आगही भी दी लज़्ज़त-ए-बे-ख़ुदी भी दी

माहिर-उल क़ादरी

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फ़ुर्सत-ए-आगही भी दी लज़्ज़त-ए-बे-ख़ुदी भी दी
मौत के साथ साथ ही आप ने आगही भी दी

सोज़-ए-दरूँ अता किया जुरअत-ए-आशिक़ी भी दी
उन की निगाह-ए-नाज़ ने ग़म ही नहीं ख़ुशी भी दी

उस ने नियाज़-ओ-नाज़ के सारे वरक़ उलट दिए
दस्त-ए-ख़लील भी दिया सनअत-ए-आज़री भी दी

फिर भी मिरी निगाह में दोनों जहाँ सियाह थे
मेरी शब-ए-फ़िराक़ को चाँद ने रौशनी भी दी

आप ने इक निगाह में सब को निहाल कर दिया
फूल को मुस्कुराहटें मौज को बेकली भी दी

छीन लो मुझ से दोस्तो ताक़त-ए-अर्ज़-ए-मुद्दआ
उस ने मिज़ाज-ए-यार को दावत-ए-बरहमी भी दी

दाम-ए-तअय्युनात में दीदा ओ दिल उलझ गए
सोज़-ए-यक़ीं के साथ साथ लज़्ज़त-ए-काफ़री भी दी

'माहिर'-ए-दिल-फ़गार पर आप की ये नवाज़िशें
फ़ितरत-ए-आशिक़ी भी दी दौलत-ए-शाइरी भी दी