EN اردو
फ़ुर्क़त की आफ़त बुरे दिन काटना साल है | शाही शायरी
furqat ki aafat bure din kaTna sal hai

ग़ज़ल

फ़ुर्क़त की आफ़त बुरे दिन काटना साल है

इमदाद अली बहर

;

फ़ुर्क़त की आफ़त बुरे दिन काटना साल है
ये हाथ है सो करे ये सीना घड़ियाल है

रोता हूँ शाम-ओ-सहर टुकड़े है ग़म से जिगर
बेदर्द कुछ रहम कर मेरा बुरा हाल है

बेचैन कहाँ दिल-ए-सामाँ याक़ूब का है मक़ाल
जिंस-ए-वफ़ा का है काल कनआन में हट-ताल है

रेशम के लच्छे हैं बाल मख़मल के टुकड़े हैं गाल
है ये नज़ाकत का हाल पतली कमर बाल है

आशिक़ बचे ता-ब की काली बला है ये शय
काकुल का जो हल्क़ा है मूज़ी का चंगाल है

क्यूँ आए हम ऐ परी हलचल में है ज़िंदगी
आफ़त है तेरे गले आँधी है भौंचाल है

फूलों में रंगत न बू सब्ज़े को कूड़ा कहो
पा-ए-ख़िज़ाँ क़त्अ हो गुलज़ार पाएमाल है

दिल नज़र जिस ने किया ठुकरा के उस ने कहा
लेती है मेरी बला दरगोर क्या माल है

हर-दम न देख उस के बाल सर पर न ले ये वबाल
जी को बला में न डाल ऐ दिल ये जंजाल है

रफ़्तार कहिए उसे दिल हर क़दम पर पिसे
पूछे कोई कब्क से सदक़े अजब चाल है

क्या कहिए क्या ग़म सहा दिन-रात रोता रहा
दिल ख़ून हो कर बहा रंगीन रूमाल है

उश्शाक़ का है ये हाल दिन-रात है हाल-ए-क़ाल
आह-ओ-फ़ुग़ाँ है ख़याल-ए-सीना-ज़नी ताल है

सौत जफ़ा-केश है आशिक़ जिगर-रेश है
अबरू है या नीश है बिच्छू है या ख़ाल है

है कुछ न कुछ तो बजोग नाहक़ नहीं है ये बिरोग
कैसा लगा जी को रोग ऐ 'बहर' क्या हाल है