फ़ुरात-ए-चश्म में इक आग सी लगाता हुआ
निकल रहा है कोई अश्क मुस्कुराता हुआ
पस-ए-गुमान कई वाहिमे झपटते हुए
सर-ए-यक़ीन कोई ख़्वाब लहलहाता हुआ
गुज़र रहा हूँ किसी जन्नत-ए-जमाल से मैं
गुनाह करता हुआ नेकियाँ कमाता हुआ
ब-सू-ए-दश्त-ए-गुमाँ दे रहा है इज़्न-ए-सफ़र
कनार-ए-ख़्वाब सितारा सा झिलमिलाता हुआ
ग़ज़ल
फ़ुरात-ए-चश्म में इक आग सी लगाता हुआ
अख़्तर रज़ा सलीमी