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फ़िराक़-ए-यार के लम्हे गुज़र ही जाएँगे | शाही शायरी
firaq-e-yar ke lamhe guzar hi jaenge

ग़ज़ल

फ़िराक़-ए-यार के लम्हे गुज़र ही जाएँगे

ज़हीर काश्मीरी

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फ़िराक़-ए-यार के लम्हे गुज़र ही जाएँगे
चढ़े हुए हैं जो दरिया उतर ही जाएँगे

तमाम रात दर-ए-मै-कदा पे काटी है
सहर क़रीब है अब अपने घर ही जाएँगे

तू मेरे हाल-ए-परेशाँ का कुछ ख़याल न कर
जो ज़ख़्म तू ने लगाए हैं भर ही जाएँगे

मियान-दार-ओ-शबिस्तान-ए-यार बैठे हैं
जिधर इशारा-ए-दिल हो उधर ही जाएँगे

जुलूस-ए-नाज़ कभी तो इधर से गुज़रेगा
कभी तो दिल के मुक़द्दर सँवर ही जाएँगे

यही रहेगा जो अंदाज़-ए-ना-शनासाई
तुम्हारे चाहने वाले तो मर ही जाएँगे

अभी छिड़ी भी न थी दास्तान-ए-अहद-ए-वफ़ा
किसे ख़बर थी कि वो यूँ मुकर ही जाएँगे

जमाल-ए-यार की नादीदा ख़ल्वतों में 'ज़हीर'
अगर गए तो ये आशुफ़्ता-सर ही जाएँगे