फ़िराक़-ए-यार के लम्हे गुज़र ही जाएँगे
चढ़े हुए हैं जो दरिया उतर ही जाएँगे
तमाम रात दर-ए-मै-कदा पे काटी है
सहर क़रीब है अब अपने घर ही जाएँगे
तू मेरे हाल-ए-परेशाँ का कुछ ख़याल न कर
जो ज़ख़्म तू ने लगाए हैं भर ही जाएँगे
मियान-दार-ओ-शबिस्तान-ए-यार बैठे हैं
जिधर इशारा-ए-दिल हो उधर ही जाएँगे
जुलूस-ए-नाज़ कभी तो इधर से गुज़रेगा
कभी तो दिल के मुक़द्दर सँवर ही जाएँगे
यही रहेगा जो अंदाज़-ए-ना-शनासाई
तुम्हारे चाहने वाले तो मर ही जाएँगे
अभी छिड़ी भी न थी दास्तान-ए-अहद-ए-वफ़ा
किसे ख़बर थी कि वो यूँ मुकर ही जाएँगे
जमाल-ए-यार की नादीदा ख़ल्वतों में 'ज़हीर'
अगर गए तो ये आशुफ़्ता-सर ही जाएँगे
ग़ज़ल
फ़िराक़-ए-यार के लम्हे गुज़र ही जाएँगे
ज़हीर काश्मीरी