फ़िक्र-ए-सूद-ओ-ज़ियाँ में रहना है
बस यही इस जहाँ में रहना है
इक कशाकश सी जाँ में रहना है
जब तलक दास्ताँ में रहना है
हर तरफ़ आसमान फैला है
सब को इक साएबाँ में रहना है
कल क्यूँ गिरता है आज गिर जाए
कौन सा इस मकाँ में रहता है
कितनी आसानियाँ मयस्सर हैं
कितना मुश्किल जहाँ में रहना है
कमरा-ए-इम्तिहान है दुनिया
हर घड़ी इम्तिहाँ में रहना है
फिर लगाई सबील आँखों ने
फिर से आब-ए-रवाँ में रहना है
आब ओ गिल आतिश ओ हवा हैं हम
और इसी ख़ानदाँ में रहना है
ज़िंदगी पूछते हो क्या मुझ से
क़हक़हों का फ़ुग़ाँ में रहना है
फ़िक्र हर कस ब-क़दर-ए-हिम्मत-ए-ऊस्त
हम को हिन्दोस्ताँ में रहना है
साँसें मग़्मूम हो गईं सुन कर
'ख़ालिद'-ए-ख़स्ता-जाँ में रहना है
ग़ज़ल
फ़िक्र-ए-सूद-ओ-ज़ियाँ में रहना है
ख़ालिद महमूद