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फ़िक्र-ए-रंज-ओ-राहत कैसी | शाही शायरी
fikr-e-ranj-o-rahat kaisi

ग़ज़ल

फ़िक्र-ए-रंज-ओ-राहत कैसी

वज़ीर अली सबा लखनवी

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फ़िक्र-ए-रंज-ओ-राहत कैसी
दोज़ख़ कैसा जन्नत कैसी

बदली उन की आदत कैसी
उल्टी अपनी क़िस्मत कैसी

हर शय में है उस का जल्वा
कसरत में है वहदत कैसी

आपस में ऐ गबरू मुसलमाँ
नाहक़ नाहक़ हुज्जत कैसी

उल्फ़त में ज़िल्लत रक्खी है
इज़्ज़त कैसी हुर्मत कैसी

ज़ोहद-ए-ज़ाहिद ला-हासिल है
बेगारी को उजरत कैसी

सुन कर मेरी सीना-कूबी
बोले वो ये नौबत कैसी

चश्म-ए-वहदत-ए-बीं के आगे
आईने की सूरत कैसी

मर जाएँगे हम फ़ुर्क़त में
रह जाएगी हसरत कैसी

आलम है ऐ मह-रू तुझ पर
शहरों में है शोहरत कैसी

उट्ठेंगे जब वो सोहबत से
बरहम होगी सोहबत कैसी

बे-ख़ुद हो जा मेरी सूरत
ऐ सूफ़ी ये हालत कैसी

दुनिया के झगड़ों से छूटे
मर कर पाई फ़ुर्सत कैसी

ज़ुल्फ़ों के फंदों से निकले
टाली सर से आफ़त कैसी

फ़स्ल-ए-गुल के आते आते
सो जाती है वहशत कैसी