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फ़िक्र-ए-ईजाद में हूँ खोल नया दर कोई | शाही शायरी
fikr-e-ijad mein hun khol naya dar koi

ग़ज़ल

फ़िक्र-ए-ईजाद में हूँ खोल नया दर कोई

शाहिद कमाल

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फ़िक्र-ए-ईजाद में हूँ खोल नया दर कोई
कुंज-ए-गुल भेज मिरी शाख़-ए-हुनर पर कोई

रंग कुछ और निचोड़ेंगे लहू से अपने
फिर तराशेंगे हम इक और नया पैकर कोई

भेज कुछ ताज़ा कुमक मेरे मुसाफ़िर के लिए
फिर उतरता है मिरे दश्त में लश्कर कोई

आस्तीनों में हवाओं ने छुपाया हुआ है
हम ने देखा है चमकता हुआ ख़ंजर कोई

क्या हुआ अब कि सफ़र में ये मुझे याद नहीं
मुझ से रोया था बहुत देर लिपट कर कोई

ज़ख़्म आँखों से टपकता है लहू की सूरत
यूँ चलाता है मिरे सीने में नश्तर कोई

ख़ुद तआ'क़ुब में मिरी घात लगाए कब से
छुप के बैठा है मिरे जिस्म के अंदर कोई

एक साहिल का तमाशाई है बस मेरा वजूद
मेरी मिट्टी में है पोशीदा समुंदर कोई

अपनी फ़िक्रों से लहू करते हैं लफ़्ज़ों में कशीद
'शाहिद' ऐसे नहीं होता है सुखनवर कोई