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फ़ज़ा मलूल थी मैं ने फ़ज़ा से कुछ न कहा | शाही शायरी
faza malul thi maine faza se kuchh na kaha

ग़ज़ल

फ़ज़ा मलूल थी मैं ने फ़ज़ा से कुछ न कहा

रईस फ़रोग़

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फ़ज़ा मलूल थी मैं ने फ़ज़ा से कुछ न कहा
हवा में धूल थी मैं ने हवा से कुछ न कहा

यही ख़याल कि बरसे तो ख़ुद बरस जाए
सो उम्र-भर किसी काली घटा से कुछ न कहा

हज़ार ख़्वाब थे आँखों में लाला-ज़ारों के
मिली सड़क पे तो बाद-ए-सबा से कुछ न कहा

वो रास्तों को सजाते रहे उन्हों ने कभी
घरों में नाचने वाली बला से कुछ न कहा

वो लम्हा जैसे ख़ुदा के बग़ैर बीत गया
उसे गुज़ार के मैं ने ख़ुदा से कुछ न कहा

शबों में तुझ से रही मेरी गुफ़्तुगू क्या क्या
दिनों में चाँद तिरे नक़्श-ए-पा से कुछ न कहा