फ़ज़ा मलूल थी मैं ने फ़ज़ा से कुछ न कहा
हवा में धूल थी मैं ने हवा से कुछ न कहा
यही ख़याल कि बरसे तो ख़ुद बरस जाए
सो उम्र-भर किसी काली घटा से कुछ न कहा
हज़ार ख़्वाब थे आँखों में लाला-ज़ारों के
मिली सड़क पे तो बाद-ए-सबा से कुछ न कहा
वो रास्तों को सजाते रहे उन्हों ने कभी
घरों में नाचने वाली बला से कुछ न कहा
वो लम्हा जैसे ख़ुदा के बग़ैर बीत गया
उसे गुज़ार के मैं ने ख़ुदा से कुछ न कहा
शबों में तुझ से रही मेरी गुफ़्तुगू क्या क्या
दिनों में चाँद तिरे नक़्श-ए-पा से कुछ न कहा
ग़ज़ल
फ़ज़ा मलूल थी मैं ने फ़ज़ा से कुछ न कहा
रईस फ़रोग़