फ़सुर्दा है इल्म हर्फ़-हा-ए-किताब भी बुझ के रह गए हैं
है राख ही राख मदरसों में निसाब भी बुझ के रह गए हैं
दिलों में शोले सिसक रहे हैं जमी हुई बर्फ़ है लबों पर
सवाल भी बुझ के रह गए हैं जवाब भी बुझ के रह गए हैं
नहीं है महफ़िल में कोई गर्मी हुए हैं दिल सर्द मुतरीबों के
धुआँ निकलता है उँगलियों से रुबाब भी बुझ के रह गए हैं
चराग़-ए-साग़र से लौ लगा कर न पाया कुछ भी फ़सुर्दगी ने
कि ग़म तो ये है कि शोला-हा-ए-शराब भी बुझ के रह गए हैं
गिरफ़्त-ए-तूफ़ाँ में आ गया है ख़याल का शोला-पोश दामन
रहे हक़ीक़त ही जिन से रौशन वो ख़्वाब भी बुझ के रह गए हैं
बुझा बुझा सा है क़ल्ब-ए-सहरा बुझी बुझी सी है रेग-ए-ताबाँ
फ़रेब खाएगी तिश्नगी क्या सराब भी बुझ के रह गए हैं
है मुन्फ़इल ज़ौक़-ए-शोला-चीनी अरक़ अरक़ है जबीन-ए-ख़िर्मन
कहाँ से आएँगे बर्क़-पारे सहाब भी बुझ के रह गए हैं
ग़ज़ल
फ़सुर्दा है इल्म हर्फ़-हा-ए-किताब भी बुझ के रह गए हैं
परवेज़ शाहिदी