फ़स्ल-ए-जुनूँ में दामन-ओ-दिल चाक भी नहीं
क्या दश्त है कि उड़ती कहीं ख़ाक भी नहीं
जीना तिरा मुहाल तो होना ही था कि तू
इस दौर के हिसाब से चालाक भी नहीं
रक़्स-ए-जुनूँ तो ख़ैर बड़ी बात है मगर
अब शहर में नुमाइश-ए-इदराक भी नहीं
अच्छा हुआ कि जल्द ही तू ने उतार दी
जचती है सब पे दर्द की पोशाक भी नहीं
दरिया कुजा कि तिश्ना-लबों के लिए तो अब
रस्ते में कोई दीदा-ए-नमनाक भी नहीं
वो दिन भी थे कि आँख बिछाते थे बर्ग-ओ-गुल
अब मुझ पे मुल्तफ़ित ख़स-ओ-ख़ाशाक भी नहीं
धुल जाएँ जिस के लम्स से दिल की कसाफ़तें
बाँहों में वो तिरा बदन-ए-पाक भी नहीं
क्यूँ सोगवार अब भी है मर्ग-ए-ज़मीर पर
वो वाक़िआ' था उतना अलमनाक भी नहीं
इक उम्र से किनारा-ए-बेचारगी पे हूँ
दरिया चढ़ा है और मैं तैराक भी नहीं
क्यूँ ख़ुश्क हो गया शजर-ए-आरज़ू 'सलीम'
मौसम था जबकि ज़ीस्त का सफ़्फ़ाक भी नहीं
ग़ज़ल
फ़स्ल-ए-जुनूँ में दामन-ओ-दिल चाक भी नहीं
सलीम फ़राज़