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फ़स्ल-ए-गुल में नईं बघूले उठते वीरानों के बीच | शाही शायरी
fasl-e-gul mein nain baghule uThte viranon ke beach

ग़ज़ल

फ़स्ल-ए-गुल में नईं बघूले उठते वीरानों के बीच

वली उज़लत

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फ़स्ल-ए-गुल में नईं बघूले उठते वीरानों के बीच
ख़ाक दीवानों की वज्दी है बयाबानों के बीच

वो जला मजनूँ के दिल का कोएला आती थी फूँक
वर्ना लैला काहे को जाती बयाबानों के बीच

जैसे गिर्हें दे कोई ज़ुन्नार का सुब्हा बनाए
पुर है कुफ़्र-ए-इश्क़ त्यूँ ईमान के दानों के बीच

पुर हैं मुश्क-ए-तीर-बख़्ती से मिरी सब दिल के घाव
जिस तरह लटके है ज़ुल्फ-ए-दिल-बराँ शानों के बीच

रूह मेरी भी नहीं छोड़ेगी रंग-ए-सैर-ए-बाग़
जूँ भरी रहती है बू-ए-गुल गुलिस्तानों के बीच

फ़स्ल-ए-गुल आई कि ज़ंजीरों के सर पर नाले कर
नाच उठे दीवाने दस्तक दे के ज़िंदानों के बीच

लाल हो इशरत से जूँ गुल हँस उठे हैं मेरे गोश
यार के आने की जूँ पहुँची ख़बर कानों के बीच

हर सुख़न को फ़ख़्र है 'उज़लत' तवज्जोह से मिरी
हूँ इमाम-ए-वक़्त दिल्ली के सुख़न-दानों के बीच