EN اردو
फ़स्ल-ए-गुल फ़स्ल-ए-ख़िज़ाँ जो भी हो ख़ुश-दिल रहिए | शाही शायरी
fasl-e-gul fasl-e-KHizan jo bhi ho KHush-dil rahiye

ग़ज़ल

फ़स्ल-ए-गुल फ़स्ल-ए-ख़िज़ाँ जो भी हो ख़ुश-दिल रहिए

अली सरदार जाफ़री

;

फ़स्ल-ए-गुल फ़स्ल-ए-ख़िज़ाँ जो भी हो ख़ुश-दिल रहिए
कोई मौसम हो हर इक रंग में कामिल रहिए

मौज ओ गिर्दाब ओ तलातुम का तक़ाज़ा है कुछ और
रहिए मोहतात तो बस ता-लब-ए-साहिल रहिए

देखते रहिए कि हो जाए न कम शान-ए-जुनूँ
आइना बन के ख़ुद अपने ही मुक़ाबिल रहिए

उन की नज़रों के सिवा सब की निगाहें उट्ठीं
महफ़िल-ए-यार में भी ज़ीनत-ए-महफ़िल रहिए

दिल पे हर हाल में है सोहबत-ए-ना-जिंस हराम
हैफ़-सद-हैफ़ कि ना-जिंसों में शामिल रहिए

दाग़ सीने का दहकता रहे जलता रहे दिल
रात बाक़ी है जहाँ तक मह-ए-कामिल रहिए

जानिए दौलत-ए-कौनैन को भी जिंस-ए-हक़ीर
और दर-ए-यार पे इक बोसे के साइल रहिए

आशिक़ी शेव-ए-रिंदान-ए-बला-कश है मियाँ
वजह-ए-शाइस्तगी-ए-ख़ंजर-ए-क़ातिल रहिए