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फ़स्ल-ए-गुल आई है कल और ही सामाँ होंगे | शाही शायरी
fasl-e-gul aai hai kal aur hi saman honge

ग़ज़ल

फ़स्ल-ए-गुल आई है कल और ही सामाँ होंगे

नसीम देहलवी

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फ़स्ल-ए-गुल आई है कल और ही सामाँ होंगे
मेरे दामन में तिरे दस्त-ओ-गरेबाँ होंगे

सब ये काफ़िर हैं हसीनों की न सुन तू ऐ दिल
चार दिन बा'द यही दुश्मन-ए-ईमाँ होंगे

किस तरह जाएँगे माने' है हमें ख़ौफ़-ए-मिज़ाज
ज़ुल्फ़ पुर-ख़म है तो कुछ वो भी परेशाँ होंगे

गिर्या अंजाम-ए-तबस्सुम है न हँस ऐ ग़ाफ़िल
ख़ून रोएँगे वही ज़ख़्म जो ख़ंदाँ होंगे

याद आएगा पस-ए-मर्ग हमारा ये कमाल
हाल खुल जाएगा जब ख़ाक में पिन्हाँ होंगे

ख़ाना-ज़ादों को कहाँ क़ैद-ए-मोहब्बत से फ़राग़
हम वो बुलबुल हैं यहीं ख़ाक-ए-गुलिस्ताँ होंगे

दौर-ए-हर-नख़्ल करेंगे सिफ़त-ए-गर्द 'नसीम'
हम पस-ए-मर्ग भी क़ुर्बान-ए-गुलिस्ताँ होंगे