फ़क़त क़ज़िया यही है फ़न्न-ए-तबई और इलाही में
जो इल्म-ए-मअरिफ़त चाहे तो रह याद-ए-इलाही में
समझता है उसी का जल्वा-गह ग़ैब-ए-शहादत को
नहीं कुछ फ़र्क़ आरिफ़ को सफ़ेदी ओ सियाही में
नहीं आराम मुझ को इज़्तिराब-ए-दिल से सीने में
कि दरिया मुज़्तरिब होता है बेताबी-ए-माही में
न कर मस्तों से काविश हर घड़ी आमान कहता हूँ
ख़लल आ जाएगा ज़ाहिद तिरी इस्मत-पनाही में
जगा कर ख़्वाब-ए-आसाइश से 'बेदार' आह हस्ती में
अदम-आसूदगाँ को ला के डाला है तबाही में
जो कैफ़िय्यत है मस्ती से तिरी आँखों की लाली में
नहीं वो नश्शा-ए-रंगीं शराब-ए-पुरतगाली में
सर-ओ-बर्ग-ए-ख़ुशी ऐ गुल-बदन तुझ बिन कहाँ मुझ को
गुलिस्तान-ए-दिल आया फ़ौज-ए-ग़म की पाएमाली में
दुर-ए-दंदाँ हुए थे मौजज़न किस बहर-ए-ख़ूबी के
कि मोती शर्म से पानी हुए सिल्क-ए-लआली में
जहाँ वो शक्करीं-लब गुफ़्तुगू में आवे ऐ तूती
सुख़न सरसब्ज़ तेरा कब हो वाँ शीरीं-मक़ाली में
अबस है आरज़ू-ए-ख़ुश-दिली 'बेदार' गर्दूं से
मय-ए-राहत जो चाहे सो कहाँ इस जाम-ए-ख़ाली में
ग़ज़ल
फ़क़त क़ज़िया यही है फ़न्न-ए-तबई और इलाही में
मीर मोहम्मदी बेदार