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फ़लक को फ़िक्र कोई मेहर-ओ-माह तक पहोंचे | शाही शायरी
falak ko fikr koi mehr-o-mah tak pahonche

ग़ज़ल

फ़लक को फ़िक्र कोई मेहर-ओ-माह तक पहोंचे

ज़ुहूर-उल-इस्लाम जावेद

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फ़लक को फ़िक्र कोई मेहर-ओ-माह तक पहोंचे
हमें ये ज़ोम कि हम वाह वाह तक पहोंचे

उन्हें न रख तू करम की निगाह से महरूम
जो लुट-लुटा के तिरी बारगाह तक पहोंचे

हुआ न हम से मुदावा-ए-दर्द-ए-नौ-ए-बशर
बहुत चले तो सवाब-ओ-गुनाह तक पहोंचे

न जाने कब से हूँ सरगर्म-ए-जुस्तुजू ऐ दोस्त
न जाने कब रुख़-ए-मंज़िल निगाह तक पहोंचे

वुफ़ूर-ए-शौक़ में ये एहतियात हो न सकी
कि आरज़ू न हमारी निगाह तक पहोंचे

हमारी ज़ीस्त की रूदाद-ए-गुल ये है 'जावेद'
कि मय-कदे से चले ख़ानक़ाह तक पहोंचे