फ़जर उठ ख़्वाब सीं गुलशन में जब तुम ने मली अँखियाँ
गईं मुँद शर्म सूँ नर्गिस की प्यारे जूँ कली अँखियाँ
नज़र भर देख तेरे आतिशीं रुख़्सार ऐ गुल-रू
मिरे दिल की ब-रंग-ए-क़तरा-ए-शबनम गली अँखियाँ
ख़िरामाँ आब-ए-हैवाँ जूँ चला जब जान आगे सीं
अंझू का भेस कर पीछूँ सीं प्यारे बह चली अँखियाँ
तुम्हें औरों सीं दूना देखती हैं ख़ुश-नुमाई में
हुनर जाने हैं अपना आज ऐब-ए-अहवली अँखियाँ
पकड़ मिज़्गाँ के पंजे सूँ मरोड़ा यूँ मिरे दिल को
तिरी ज़ोर-आवरी में आज रुस्तम हैं बली अँखियाँ
तिरा हर उज़्व प्यारे ख़ुश-नुमा है उज़्व-ए-दीगर सीं
मिज़ा सीं ख़ूब-तर अबरू व अबरू सीं भली अँखियाँ
तहय्युर के फँदे में सैद हो कर चौकड़ी भूले
अगर आहू कूँ दिखलाऊँ सजन की अचपली अँखियाँ
हुई फ़ानूस गर्दूं के सियह काजल सूँ सर-ता-पा
शब-ए-हिज्राँ में तेरी शम्अ हो याँ लग जली अँखियाँ
ज़बाँ कर अपने मिज़्गाँ कूँ लगी हैं रेख़्ते पढ़ने
हुई हैं 'आबरू' के वस्फ़ में तेरी वली अँखियाँ
ग़ज़ल
फ़जर उठ ख़्वाब सीं गुलशन में जब तुम ने मली अँखियाँ
आबरू शाह मुबारक