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फ़ैज़ान-ए-मोहब्बत न हुआ आम अभी तक | शाही शायरी
faizan-e-mohabbat na hua aam abhi tak

ग़ज़ल

फ़ैज़ान-ए-मोहब्बत न हुआ आम अभी तक

मुहम्मद अय्यूब ज़ौक़ी

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फ़ैज़ान-ए-मोहब्बत न हुआ आम अभी तक
तारीक है इंसान का अंजाम अभी तक

मयख़ाने में है तिश्ना-लबी आम अभी तक
गर्दिश में मोहब्बत के नहीं जाम अभी तक

छीना है सुकूँ दहर का अरबाब-ए-ख़िरद ने
हैं अहल-ए-जुनूँ मोरिद-ए-इल्ज़ाम अभी तक

वामांदा-ए-मंज़िल है जो ऐ राह-रव-ए-शौक़
शायद है तिरा ज़ौक़-ए-तलब ख़ाम अभी तक

इस दौर-ए-सुकूँ सोज़-ओ-पुर-आशोब में ऐ दोस्त
मायूस नहीं है दिल-ए-नाकाम अभी तक

रुख़्सत हुआ गो दौर-ए-ख़िज़ाँ फ़स्ल-ए-गुल आई
गुलशन के वही हैं सहर-ओ-शाम अभी तक

पहूँचा तो बशर रिफ़अ'त-ए-मिर्रीख़-ओ-क़मर पर
क़ाबू में नहीं गर्दिश-ए-अय्याम अभी तक

दुनिया ने जिसे रिफ़अ'त-ए-फ़ाराँ से सुना था
है अम्न का ज़ामिन वही पैग़ाम अभी तक

गो ताबिश-ए-अनवार से ख़ीरा हैं निगाहें
है सुब्ह के रुख़ पर असर-ए-शाम अभी तक

नादिम तो हैं वो क़त्ल पे अरबाब-ए-वफ़ा के
लेकिन सर-ए-फ़िहरिस्त हैं कुछ नाम अभी तक

साक़ी तिरे मयख़ाने की तंज़ीम-ए-ग़लत पर
सुनते हैं कि रिंदों में है कोहराम अभी तक

धब्बा नहीं गो दामन-ए-तहज़ीब पे लेकिन
मिलते हैं यहाँ बंदा-ए-बे-दाम अभी तक

मुद्दत हुई कुछ रब्त नहीं शेर-ओ-सुख़न से
होता है मिरे क़ल्ब को इल्हाम अभी तक

इस पर भी निगाह-ए-करम ऐ फ़ातिर-ए-हस्ती
'ज़ौक़ी' है रहीन-ए-ग़म-ओ-आलाम अभी तक