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'फ़ैज़' और 'फ़ैज़' का ग़म भूलने वाला है कहीं | शाही शायरी
faiz aur faiz ka gham bhulne wala hai kahin

ग़ज़ल

'फ़ैज़' और 'फ़ैज़' का ग़म भूलने वाला है कहीं

हबीब जालिब

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'फ़ैज़' और 'फ़ैज़' का ग़म भूलने वाला है कहीं
मौत ये तेरा सितम भूलने वाला है कहीं

हम से जिस वक़्त ने वो शाह-ए-सुख़न छीन लिया
हम को वो वक़्त-ए-अलम भूलने वाला है कहीं

तिरे अश्क और भी चमकाएँगी यादें उस की
हम को वो दीदा-ए-नम भूलने वाला है कहीं

कभी ज़िंदाँ में कभी दूर वतन से ऐ दोस्त
जो किया उस ने रक़म भूलने वाला है कहीं

आख़िरी बार उसे देख न पाए 'जालिब'
ये मुक़द्दर का सितम भूलने वाला है कहीं