फ़ासले ऐसे भी होंगे ये कभी सोचा न था
सामने बैठा था मेरे और वो मेरा न था
वो कि ख़ुशबू की तरह फैला था मेरे चार-सू
मैं उसे महसूस कर सकता था छू सकता न था
रात भर पिछली सी आहट कान में आती रही
झाँक कर देखा गली में कोई भी आया न था
मैं तिरी सूरत लिए सारे ज़माने में फिरा
सारी दुनिया में मगर कोई तिरे जैसा न था
आज मिलने की ख़ुशी में सिर्फ़ मैं जागा नहीं
तेरी आँखों से भी लगता है कि तू सोया न था
ये सभी वीरानियाँ उस के जुदा होने से थीं
आँख धुँदलाई हुई थी शहर धुँदलाया न था
सैंकड़ों तूफ़ान लफ़्ज़ों में दबे थे ज़ेर-ए-लब
एक पत्थर था ख़मोशी का कि जो हटता न था
याद कर के और भी तकलीफ़ होती थी 'अदीम'
भूल जाने के सिवा अब कोई भी चारा न था
मस्लहत ने अजनबी हम को बनाया था 'अदीम'
वर्ना कब इक दूसरे को हम ने पहचाना न था
ग़ज़ल
फ़ासले ऐसे भी होंगे ये कभी सोचा न था
अदीम हाशमी