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एक ये दिल जो तुझे दे के गँवा देने लगा | शाही शायरी
ek ye dil jo tujhe de ke ganwa dene laga

ग़ज़ल

एक ये दिल जो तुझे दे के गँवा देने लगा

मक़सूद वफ़ा

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एक ये दिल जो तुझे दे के गँवा देने लगा
और इक चीज़ कोई इस के सिवा देने लगा

ऐसी ख़ुशबू है कि अब ज़ब्त नहीं है मुमकिन
मैं हवाओं को कोई राज़ बता देने लगा

अब मिरे सामने रस्ता ही कुछ ऐसा है कि मैं
अपनी मंज़िल को भी रस्ते से हटा देने लगा

वो जिसे देख के जलने में मज़ा लेना था
वक़्त वो दाग़-ए-तमन्ना भी मिटा देने लगा

जिस की गर्दिश में मह-ओ-मेहर हों दोहराए हुए
ऐसे मंज़र को मैं मेहवर से हटा देने लगा

क्या ज़माना था तिरे वस्ल की बेताबी का
क्या ज़माना है तिरा हिज्र मज़ा देने लगा

एक हसरत में हुआ इतना मुझे रंज कि मैं
हाथ आई हुई दुनिया को गँवा देने लगा

इतना महरूम-ए-तमन्ना हूँ कि अब आख़िर-कार
मैं ने जो चाहा वही मुझ को ख़ुदा देने लगा

आब-ए-सादा जो बरसता है दरीचे से परे
आतिश-ए-मय को ज़रा और बढ़ा देने लगा

मुझ को सुनना था किसी और ज़माने ने 'वफ़ा'
मैं किसी और ज़माने में सदा देने लगा