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एक ना-मक़बूल क़ुर्बानी हूँ मैं | शाही शायरी
ek na-maqbul qurbani hun main

ग़ज़ल

एक ना-मक़बूल क़ुर्बानी हूँ मैं

अब्दुल हमीद अदम

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एक ना-मक़बूल क़ुर्बानी हूँ मैं
सर-फिरी उल्फ़त में ला-सानी हूँ मैं

मैं चला जाता हूँ वाँ तकलीफ़ से
वो समझते हैं कि ला-सानी हूँ मैं

कान धरते ही नहीं वो बात पर
कब से मसरूफ़-ए-सना-ख़्वानी हूँ मैं

ज़िंदगी है इक किराए की ख़ुशी
सूखते तालाब का पानी हूँ मैं

मुझ से बढ़ कर क्या कोई होगा अमीर
क़ीमती विर्से की अर्ज़ानी हूँ मैं

चाँदनी रातों में यारों के बग़ैर
चाँदनी रातों की वीरानी हूँ मैं

कहना सुनना उन से मुझ को कुछ नहीं
सिर्फ़ इक तम्हीद-ए-तूलानी हूँ मैं

मुझ को पछताना नहीं आता 'अदम'
एक दौलत-मंद नादानी हूँ मैं