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एक मक़्तूल-ए-जफ़ा दो ज़ुल्म के क़ाबिल न था | शाही शायरी
ek maqtul-e-jafa do zulm ke qabil na tha

ग़ज़ल

एक मक़्तूल-ए-जफ़ा दो ज़ुल्म के क़ाबिल न था

साक़िब लखनवी

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एक मक़्तूल-ए-जफ़ा दो ज़ुल्म के क़ाबिल न था
वर्ना दिल का मारना आसान था मुश्किल न था

शौक़-ए-आज़ादी में तड़पूँ उस पे राज़ी दिल न था
वर्ना बेताबी सलामत छूटना मुश्किल न था

हश्र में वो सर झुकाए हैं मैं शिकवा क्या करूँ
जाने वाली जान थी मेरा कोई क़ातिल न था

अब सुलैमानी किसे कहते हैं बतला दे मुझे
एक आलम था तिरी मुट्ठी में मेरा दिल न था

दे सदा अब दिल मगर नक़्श-ए-क़दम को देख कर
ऐसे भी दर हैं कभी जिन पर कोई साइल न था

ख़ास वक़्त-ए-याद-ए-गुलशन और मेरा छेड़ना
शब को भी सय्याद मेरे ज़ब्ह से ग़ाफ़िल न था

सुब्ह-ओ-शाम-ए-ग़म ने दामन भर के भेजा दहर से
वर्ना इस उम्र-ए-दो-रोज़ा का कोई हासिल न था

उस की क़ुदरत ना-तवानों को भी देता है उरूज
आसमाँ से सर चढ़े नाला तो इस क़ाबिल न था

तेरे नक़्शे ने भी फ़ुर्क़त में न बहलाया मुझे
शाम-ए-ग़म जब आई गुर्दों पर हर कामिल न था

देख लेते दो क़दम चल कर कि मतलब था यही
दर पे जो आया था वो बीमार था साइल न था

क़ल्ब-ए-सोज़ाँ और ही धोका न खाना दहर में
रह गया जो आग दे कर संग था वो दिल न था

कुछ सँभल जाता अगर करवट बदल जाते मिरी
ये मुझे दुश्वार था उन के लिए मुश्किल न था

डूबता था दिल शब-ए-वस्ल आ चुकी थी ता-सहर
एक तिनके का सहारा भी लब-ए-साहिल न था

इस दिल-ए-गुम-गश्ता मतलब के सबब से दहर में
कौन सा दिन था कि मैं आवारा-ए-मंज़िल न था

एक जलती शम्अ' उठवा दी बहुत अच्छा किया
सोख़्ता-दिल था मैं कोई रौनक़-ए-महफ़िल न था

शाम-ए-ग़म जिस में रहे बरसों वहाँ क्या ईद हो
वो तो आ जाए मगर ये दिल ही इस क़ाबिल न था

जुज़ फ़रेब-ए-हुस्न और उल्फ़त को 'साक़िब' क्या कहूँ
ज़िंदगी से शय कभी उस पर भी दिल माइल न था