EN اردو
एक मंज़र कहकशानी इक ख़त-ए-बर-आब भी | शाही शायरी
ek manzar kahkashani ek KHat-e-bar-ab bhi

ग़ज़ल

एक मंज़र कहकशानी इक ख़त-ए-बर-आब भी

सय्यद अमीन अशरफ़

;

एक मंज़र कहकशानी इक ख़त-ए-बर-आब भी
ज़िंदगी बाला-नशीनी भी कमंद-ए-ख़्वाब भी

कुछ जुनूँ की सरफ़रोशी कुछ ख़िरद का बाँकपन
वर्ना है उज़्व-ए-मुअत्तल आलम-ए-असबाब भी

दूर साहिल से तमाशा देखते रहते हैं लोग
कश्तियाँ होती हैं ज़ेर-ए-आब भी ग़र्क़ाब भी

ख़स्तगी में तुझ से क्या शिकवा कि ऐ जान-ए-मुराद
इस बुलंदी से नज़र आते नहीं अहबाब भी

दिल भी लग जाएगा मुश्किल सहल भी हो जाएगा
कार-ए-दुनिया में मिला दें कार-ए-पेच-ओ-ताब भी

अपनी धुन पर लहलहाना किश्त-ए-जाँ की ख़ासियत
मौसमों के दरमियाँ तिश्ना भी हों सैराब भी

उस नज़र की शोख़ियों ने ला-उबाली कर दिया
उस की नज़रों ने सिखाए शौक़ के आदाब भी

फ़र्क़ इतना है कि हैराँ हो के रह जाती है आँख
आग बरसाता था पहले दीदा-ए-शादाब भी

तैरने जोड़े बतों के अब यहाँ आते नहीं
गाँव में पानी से ख़ाली हो गया तालाब भी

तेरे जल्वों ने मिटाया इम्तियाज़-ए-रोज़-ओ-शब
देखता हूँ माह-ए-नौ भी मेहर-ए-आलम-ताब भी

मैं था ना-मा'लूम शय थी दीदा-ए-हैरान था
ऐसे मंज़र से क़रीं था मौजा-ए-सैलाब भी

शाइ'री क्या है 'अमीन-अशरफ़' नवा-ए-बर्ग ने
इश्क़-नामा भी ग़ज़ल भी आसमाँ मेहराब भी